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अ॒र्य॒मा णो॒ अदि॑तिर्य॒ज्ञिया॒सोऽद॑ब्धानि॒ वरु॑णस्य व्र॒तानि॑। यु॒योत॑ नो अनप॒त्यानि॒ गन्तोः॑ प्र॒जावा॑न्नः पशु॒माँ अ॑स्तु गा॒तुः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

aryamā ṇo aditir yajñiyāso dabdhāni varuṇasya vratāni | yuyota no anapatyāni gantoḥ prajāvān naḥ paśumām̐ astu gātuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒र्य॒मा। नः॒। अदि॑तिः। य॒ज्ञिया॑सः। अद॑ब्धानि। वरु॑णस्य। व्र॒तानि॑। यु॒योत॑। नः॒। अ॒न॒प॒त्यानि॑। गन्तोः॑। प्र॒जाऽवा॑न्। नः॒। प॒शु॒ऽमान्। अ॒स्तु॒। गा॒तुः॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:54» मन्त्र:18 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:27» मन्त्र:3 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:18


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! (अदितिः) माता के सदृश (अर्य्यमा) न्यायाधीश (यज्ञियासः) जिसमें हिंसा न हो ऐसे यज्ञ के करनेवाले आप लोगो ! (नः) हम लोगों के (वरुणस्य) श्रेष्ठ के (अदब्धानि) हिंसाभिन्न (व्रतानि) सत्य बोलने आदि व्रतों को (युयोत) प्राप्त कराइये (नः) हम लोगों के (गन्तोः) प्राप्त होने योग्य व्यवहार से (अनपत्यानि) नहीं विद्यमान हैं सन्तान जिनमें उनको प्राप्त कराइये जिससे (नः) हम लोगों की (गातुः) पृथिवी (प्रजावान्) सन्तानयुक्त और (पशुमान्) बहुत पशुयुक्त (अस्तु) हो ॥१८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वानो ! आप लोग हम लोगों को न्यायाधीश और माता के सदृश अन्यायाचरण से अलग करके और सत्य धर्मयुक्त कर्मों को प्राप्त कराके सम्पूर्ण पृथिवी को बहुत प्रजा और असंख्य धनयुक्त करो ॥१८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे विद्वांसोऽदितिरिवार्य्यमा यज्ञियासो यूयं नो वरुणस्याऽदब्धानि व्रतानि युयोत। नो गन्तोरनपत्यानि युयोत येन नो गातुः प्रजावान् पशुमानस्तु ॥१८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अर्य्यमा) न्यायाधीशः (नः) अस्माकम् (अदितिः) मातेव (यज्ञियासः) अहिंसायज्ञस्याऽनुष्ठातारः (अदब्धानि) अहिंसितानि (वरुणस्य) श्रेष्ठस्य (व्रतानि) सत्यभाषणादीनि (युयोत) प्रापयत त्याजयत (नः) अस्माकम् (अनपत्यानि) अविद्यमानान्यपत्यानि येषु तानि (गन्तोः) गन्तव्यानि (प्रजावान्) सन्तानवान् (नः) अस्मान् (पशुमान्) बहुपशुयुक्तः (अस्तु) (गातुः) भूमिः। गातुरिति पृथिवीना० निघं० १। १। ॥१८॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो भवन्तोऽस्मान्न्यायाधीशवन्मातृवदन्यायाचरणात्पृथक्कृत्य सत्यानि धर्म्याणि कर्माणि प्रापय्य भूगोलं बहुप्रजासमसंख्यधनं कुरुत ॥१८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो! तुम्ही आम्हाला न्यायाधीशाप्रमाणे व मातेप्रमाणे अन्यायाचरणापासून दूर करून सत्य धर्म कर्म प्राप्त करवून संपूर्ण पृथ्वीला प्रजा व धन यांनी युक्त करा. ॥ १८ ॥